चिंता का कारण बन गया है प्रसव के बाद का अवसाद

चिंता का कारण बन गया है प्रसव के बाद का अवसाद

डॉ. शुभा मधुसूदन 

अवसाद अब सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में चिंता का मुख्य विषय बन गया है और यह किसी को भी, किसी उम्र में प्रभावित कर सकता है। बच्चे को जन्म देने के कुछ ही महीनों के अंदर जब एक महिला में अवसाद के लक्षण आते हैं, तो इसको पोस्टपार्टम डिप्रेशन या प्रसवोत्तर अवसाद (पीपीडी) कहते हैं। 

क्‍या है पीपीडी

यह एक आम धारणा है कि बच्चे का जन्म पूरे परिवार में खुशियां लाता है, खासतौर से नई-नई बनी मां के लिए सबसे अधिक। इसलिए, यह आश्चर्यजनक है कि 75 प्रतिशत तक नई माएं प्रसव के कुछ दिनों के अंदर हल्के और कम समय के लिए विलाप या रोने वाले मन का अनुभव कर सकती हैं। वे अपने मिजाज में लगातार बदलाव पा सकती हैं। अगर ये लक्षण तीव्र हैं या दो हफ्ते से अधिक समय तक जारी हैं, तब ये सामान्य बेबी ब्ल्यूज स्थिति से ज्यादा का संकेत देते हैं। पीपीडी एक गंभीर रोग है और करीब 10-15 प्रतिशत महिलाएं, जो बच्चे को जन्म देती हैं, इससे प्रभावित हो जाती हैं।

पीपीडी के बारे में समय पर जानकारी जुटाएं

नीचे दिया गया मामला ऐसी ही एक मां की दुखद कहानी बयान करता है। 27 साल की एक महिला परिवार में नए सदस्य के आने को लेकर काफी खुश थी। पहले एक महीने तक, उसने बच्चे की उसी तरह देखभाल की, जैसी अन्य माएं करती हैं। वह अपने सभी सगे-संबंधियों के साथ खुशनुमा बर्ताव रखती थी। हालांकि, धीरे-धीरे वह असामान्य बर्ताव दिखाने लगी। वह अलग-थलग रहना पसंद करने लगी और घर में सबसे बातचीत बंद कर दी।

रोजमर्रा के कामकाज से भी उसकी रुचि हट गई और फिर उसने बच्चे की देखभाल भी बंद कर दी। शुरू में उसके परिवार वालों का ध्यान तब तक इस तरफ नहीं गया, जब एक दिन उस महिला ने अपनी कलाई काट ली और अपने ही खून में सनी हुई पड़ी मिली। उसे आनन-फानन में अस्पताल ले जाया गया और फिर यह पता चला कि वह पीपीडी से ग्रसित है। वह बच गई। समय रहते इस तरफ ध्यान दिए जाने को धन्यवाद, लेकिन वह उतनी भी खुशनसीब नहीं थी। अगर उसके अपने पीपीडी के बारे में जानते, तो वे समय पर ही इसके लक्षण ढूंढ़ लेते और उसको इस त्रासदी से बचा लेते हैं।

पीडीपी से किस तरह की महिलाएं गुजरती हैं?

1.     उद्विग्न शख्सियत वाली महिलाओं को जब बदलाव का सामना करना पड़ता है और बच्चों की देखभाल और अनियोजित प्रसव जैसी स्थिति से गुजरना पड़ता है, तो वे इसकी शिकार होती हैं।

2.     यह वैसे लोगों को परेशान कर सकता है, जो जीवन में हर चीज के लिए तैयार हैं और वे वाकई कुछ अप्रत्याशित स्थिति का सामना कर लेते हैं।

3.     बहुत लाड़-प्यार पाने वाली महिलाएं दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में भी सहज नहीं होतीं। उनके लिए हर चीज एक समस्या है। अब चूंकि एक छोटा बच्चा उनके पास है, इसलिए यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि अगले एक घंटे में क्या होना वाला है।  बच्चा रो भी सकता है, वह स्तनपान चाह सकता है। वह जगा भी रह सकता है, सोए ही नहीं।

4.     कुछ मर्द शिशु की देखभाल में दिलचस्पी नहीं लेते। वे शिशु को गोद लेने से डरते हैं, उनकी लंगोट नहीं बदल सकते। यह महिला के लिए अप्रिय स्थिति है। वह सोचती है कि पुरुष इस सजा से बच रहे हैं और उसे अकेले ही सारे काम करने पड़ते हैं।

5.     कुछ ससुराल वाले शिशु के मामले में ज्यादा ही दखल देते हैं और वे बहु को लगातार निर्देश देते रहते हैं।

6.     कुछ मर्द सास के प्रति असंवेदनशील होते हैं, जो उनकी पत्नी और शिशु की देखभाल के लिए आती हैं। वे बदतमीजी से बात करते हैं और पत्नी की मां को दखल के रूप में देखते हैं।

7.     बच्चों के लिए क्या सही है और क्या गलत, इस मुद्दे पर कुछ माएं और उनकी सास आपस में लड़ जाती हैं, दरअसल, वे दोनों अपने-अपने वर्चस्व की लड़ाई में फंसे होते हैं और ऐसे में, महिला खुद को असहाय स्थिति में पाती है।

8.     नौकरी में मातृत्व अवकाश कॅरिअर के विकास में बाधा बन सकता है और कॅरिअर के प्रति उन्मुख कुछ महिलाएं काम पर लौटने संबंधी अनिश्चितता से हिल जाती हैं।

9.     अपरिभाषित अवसाद या तनाव भी पीपीडी का कारण बन सकता है।

लक्षण क्‍या हैं

तो पीपीडी कैसा दिखता हैखैर, इस विकार के कुछ लक्षणों में शामिल है- मिजाज का बार-बार बदलना, ज्यादा चीखना, परिवार या दोस्तों से कटना, भूख की रुचि का बदलना, नींद टूटना, खुद को हमेशा हाशिये पर देखना, मनोरंजक कामों में रुचि घटना, अच्छी मां नहीं बनने का भय होना, खुद को दोषी देखना, बच्चे को नुकसान पहुंचाने की भावना और खुद को मारने का विचार आना। नवजात जीवन गर्भधारण के समय से बच्चे के एक साल की उम्र तक का होता है। इस दौरान, महिला किसी भी तरह की असुरक्षा का शिकार हो सकती है।

कारण कई हो सकते हैं

हमें नहीं पता है कि पीपीडी आखिर किस वजह से होता है? गर्भावस्था के कारण महिलाओं के हार्मोन स्तरों में तेजी से होने वाले बदलाव, बच्चे के जन्म से जुड़ा तनाव, अपने परिवारवालों से पूरा सहयोग न मिलना, अथवा मातृत्व की नई जिम्मेदारी को लेकर जबर्दस्त जागरुकता- कारण इनमें से एक या फिर कई हो सकते हैं। जिन्हें पहले अवसाद की शिकायत रह चुकी है या फिर उनके परिवार में किसी को अवसाद अथवा किसी अन्य तरह के मूड डिस्‍ऑर्डर्स की समस्या थी, उन्हें पीपीडी होने का जोखिम अधिक रहता है और इसलिए उन्हें सावधानीपूर्वक डॉक्टर से संपर्क करने की जरूरत है।

आसानी से पता चल सकता है

इस विकार का पता आसानी से किसी मनोरोग चिकित्सक अथवा काबिल क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक द्वारा लगाया जा सकता है; और मरीज की मानसिक स्थिति का विस्तृत इतिहास और परीक्षण सबसे आवश्यक डायग्नोस्टिक टूल्स हैं। कभी-कभी, पीपीडी में अन्य संभावित योगदानकर्ताओं का निर्धारण करने के लिए कुछ लैबोरेटरी परीक्षणों की भी जरूरत होती है।

पीपीडी का पता चलने के बाद, उसका उपचार एक मनोरोग चिकित्सक से कराना चाहिये था। इस उपचार के दौरान उसे प्रेरणा देने और सहयोग करने में परिवार के लोगों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। डॉक्टर द्वारा दवाईयां बताने का फैसला यह ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये कि इनका असर नवजात शिशु पर भी हो सकता है और मां के लक्षणों की गंभीरता से अलग इसको महत्व देना चाहिये। साइकोथैरेपी अथवा टॉक थैरेपी एक विकल्प है जिसे कई मामलों में चुना जाता है।

(लेखिका फोर्टिस अस्‍पताल बैंगलोर में क्‍लीनिकल साइकोलॉजिस्‍ट हैं)

 

की वर्ड्स: अवसाद, प्रसव, महिलाएं, बच्‍चे, जन्‍म, परिवार, डॉक्‍टर, फोर्टिस

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